परमेश्‍वर के अस्तित्व के लिए तत्वमीमांसात्मक तर्क क्या है?

प्रश्न परमेश्‍वर के अस्तित्व के लिए तत्वमीमांसात्मक तर्क क्या है? उत्तर ओन्टालोजिकल अर्थात् तत्वमीमांसात्मक तर्क संसार के अवलोकन (ब्रह्माण्ड सम्बन्धी और सोद्देश्यवादी तर्कों की तरह) के ऊपर आधारित नहीं अपितु मात्र तर्क के ऊपर ही आधारित है। विशेष रूप से, तत्वमीमांसात्मक तर्क अपने तर्कों को तत्व (सत्तामीमांसा) के अध्ययन से पाता है। इस तर्क का…

प्रश्न

परमेश्‍वर के अस्तित्व के लिए तत्वमीमांसात्मक तर्क क्या है?

उत्तर

ओन्टालोजिकल अर्थात् तत्वमीमांसात्मक तर्क संसार के अवलोकन (ब्रह्माण्ड सम्बन्धी और सोद्देश्यवादी तर्कों की तरह) के ऊपर आधारित नहीं अपितु मात्र तर्क के ऊपर ही आधारित है। विशेष रूप से, तत्वमीमांसात्मक तर्क अपने तर्कों को तत्व (सत्तामीमांसा) के अध्ययन से पाता है। इस तर्क का प्रथम और सबसे लोकप्रिय रूप 11वीं शताब्दी ईसा सन् के सन्त एन्सलम में पाया जाता है। वह यह कहते हुए आरम्भ करते हैं कि परमेश्‍वर की अवधारणा एक “ऐसे तत्व से है, जिसकी कल्पना कोई भी नहीं कर सकता है।” क्योंकि अस्तित्व सम्भव है, और अस्तित्व में होना अस्तित्व में न होने की तुलना से कहीं अधिक बढ़ कर है, इसलिए परमेश्‍वर को अवश्य ही अस्तित्व में होना चाहिए (यदि परमेश्‍वर अस्तित्व में नहीं होता, तब तो एक बड़े तत्व के अस्तित्व की कल्पना की जा सकती है, परन्तु यह स्वयं को पराजित करने जैसा है — आप किसी ऐसे बड़े तत्व की कल्पना नहीं कर सकते जिसकी तुलना किसी बड़े तत्व के अभिव्यक्ति में नहीं हो सकती है!)। इसलिए, परमेश्‍वर को अस्तित्व में होना चाहिए। डेकार्ट ने भी ऐसा ही बहुत कुछ कहते हुए, इस विचार को एक पूर्ण तत्व के होने के विचार से ही आरम्भ किया है।

नास्तिक बर्ट्रेंड रस्सेल ने इसी बात को बहुत ही सरल शब्दों में कहा है कि तत्वमीमांसात्मक तर्क को अच्छा नहीं है, की तुलना में सटीकता से यह कहना ज्यादा अच्छा होगा कि इसके साथ गलत क्या है! यद्यपि, आज के दिनों में अधिकांश मसीही मण्डलियों में तत्वमीमांसात्मक तर्क अधिक लोकप्रिय नहीं हैं। प्रथम, वे यह पूछते हैं कि परमेश्‍वर किसके जैसा है। दूसरा, इसका व्यक्तिपरक आग्रह गैर-विश्‍वासियों के लिए बहुत ही कम पाया जाता है, क्योंकि इन तर्कों में वस्तुनिष्ठक समर्थन की कमी है। तीसरा, केवल यह कहना कठिन है कि परिभाषा के द्वारा ही किसी का अस्तित्व होना चाहिए। एक वस्तु क्यों अस्तित्व में है, का किसी अच्छे दार्शनिक समर्थन के बिना होना, सरलता से यही परिभाषित करेगा कि अस्तित्व में रहने वाली कोई वस्तु के पास अच्छा दर्शन (जैसे यह कहना कि गेंडे जादुई हैं, एक सींग वाले घोड़े अस्तित्व में हैं) नहीं है। इन समस्याओं के पश्चात् आज भी कई प्रमुख दार्शनिकों ने धर्मविज्ञान आधारित तर्क के इस और अधिक असामान्य रूप पर कार्य आगे बढ़ाया है।

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