हाग्गै की पुस्तक

हाग्गै की पुस्तक लेखक : हाग्गै 1:1 हाग्गै की पुस्तक के लेखक के रूप में भविष्यद्वक्ता हाग्गै को परिचित कराती है। लेखन तिथि : हाग्गै की पुस्तक लगभग 520-565 ईसा पूर्व में लिखी गई थी। लेखन का उद्देश्य : हाग्गै ने परमेश्‍वर के लोगों को उनकी प्राथमिकताओं के प्रति चुनौती देनी चाही। उसने स्थानीय और…

हाग्गै की पुस्तक

लेखक : हाग्गै 1:1 हाग्गै की पुस्तक के लेखक के रूप में भविष्यद्वक्ता हाग्गै को परिचित कराती है।

लेखन तिथि : हाग्गै की पुस्तक लगभग 520-565 ईसा पूर्व में लिखी गई थी।

लेखन का उद्देश्य : हाग्गै ने परमेश्‍वर के लोगों को उनकी प्राथमिकताओं के प्रति चुनौती देनी चाही। उसने स्थानीय और शासकीय विरोध के पश्चात् भी लोगों को मन्दिर का निर्माण करने के द्वारा परमेश्‍वर की महिमा और आदर करने की बुलाहट दी। हाग्गै ने उन्हें निरूत्साहित न होने की बुलाहट दी क्योंकि यह मन्दिर सुलैमान के मन्दिर की तरह वैभवशाली नहीं होगा। उसने उन्हें उनके अशुद्धता से भरे हुए मार्गों से मुड़ने और परमेश्‍वर की सर्वोच्च सामर्थ्य में भरोसा करने के लिए उपदेश दिया। हाग्गै की पुस्तक परमेश्‍वर के द्वारा उस समय सामना की जाने वाली समस्याओं का, कैसे परमेश्‍वर ने लोगों ने साहस के साथ परमेश्‍वर में भरोसा रखा और कैसे परमेश्‍वर ने उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति की के प्रति एक स्मरणार्थ है।

कुँजी वचन : हाग्गै 1:4, “क्या तुम्हारे लिये अपने छतवाले घरों में रहने का समय है, जबकि यह भवन उजाड़ पड़ा है?”

हाग्गै 1:5-6, इसलिये अब सेनाओं का यहोवा यों कहता है : “अपनी अपनी चालचलन पर ध्यान करो। तुम ने बहुत बोया परन्तु थोड़ा काटा; तुम खाते हो, परन्तु पेट नहीं भरता; तुम पीते हो, परन्तु प्यास नहीं बुझती; तुम कपड़े पहिनते हो, परन्तु गरमाते नहीं; और जो मजदूरी कमाता है, वह अपनी मजदूरी की कमाई को छेदवाली थैली में रखता है।”

हाग्गै 2:9, “‘इस भवन की पिछली महिमा इसकी पहिली महिमा से बड़ी होगी,’ सेनाओं के यहोवा का यही वचन है, ‘और इस स्थान में मैं शान्ति दूँगा,’ सेनाओं के यहोवा की यही वाणी है।”

संक्षिप्त सार : क्या परमेश्‍वर के लोग उनकी प्राथमिकताओं के ऊपर ध्यान देंगे, साहसी होंगे, और परमेश्‍वर की प्रतिज्ञाओं के आधार पर कार्य करेंगे? परमेश्‍वर ने उसके लोगों को उसके वचन के ऊपर ध्यान देने के लिए चेतावनी देनी चाही। न केवल परमेश्‍वर ने उन्हें चेतावनी दी, अपितु उसने साथ ही अपने सेवक हाग्गै के द्वारा परमेश्‍वर का अनुसरण करने के लिए उन्हें प्रेरित करने हेतू प्रतिज्ञाएँ भी प्रदान की। क्योंकि परमेश्‍वर के लोगों ने अपनी प्राथमिकताओं को उलट दिया था और अपने जीवनों में परमेश्‍वर को प्रथम स्थान देने में असफल हो गए थे, परिणामस्वरूप यहूदा को बेबीलोन की बन्धुवाई में भेज दिया गया। दानिय्येल की प्रार्थना और परमेश्‍वर की प्रतिज्ञाओं की पूर्णता के प्रतिउत्तर में, परमेश्‍वर ने फारसी राजा कुस्रू को निर्देशित किया कि वह यहूदियों को बन्धुवाई में से यरूशलेम वापस जाने की अनुमति प्रदान करे। यहूदियों का एक समूह बड़े आनन्द के साथ, अपने जीवनों में परमेश्‍वर को प्रथम स्थान देते हुए, उसकी आराधना करते हुए उनकी जन्मभूमि में लौट आया और स्थानीय लोगों की सहायता के बिना ही जो उस समय पलिश्तीन में रह रहे थे, यरूशलेम के मन्दिर का निर्माण करने लगा। उनके साहसी विश्‍वास का विरोध स्थानीय लोगों के साथ साथ फारस के शासन के द्वारा लगभग 15 वर्षों तक किया जाता रहा।

प्रतिछाया : जैसा कि अन्य बहुत से छोटे भविष्यद्वक्ताओं की पुस्तकों के साथ हुआ है, हाग्गै की पुस्तक भी पुनर्स्थापना अर्थात् बहाली और आशीष की प्रतिज्ञाओं के साथ अन्त होती है। अन्तिम दो वचनों, हाग्गै 2:23 में, हाग्गै जरूब्बाबेल के संदर्भ में मसीही सम्बन्धी विशेष पदवी “मेरे दास” का उपयोग करता है (इसकी तुलना 2 शमूएल 3:18; 1 राजा 11:34; यशायाह 42:1–9; यहेजकेल 37:24,25 के साथ करें)। हाग्गै के द्वारा, परमेश्‍वर उसे एक ऐसी प्रतीकात्मक अगूँठी बनाने की प्रतिज्ञा करता है, जो सम्मान, अधिकार और सामर्थ्य का चिन्ह थी, बहुत कुछ राजा के राजदण्ड की तरह, जिसका उपयोग राजाज्ञा और आदेश को मुहरबन्द करने के लिए उपयोग किया जाता है। जरूब्बाबेल, परमेश्‍वर की प्रतीकात्मक अगूँठी के रूप में, दाऊद के घराने को और बन्धुवाई के कारण मसीही सम्बन्धी वंशावली के बाधित होने की पुनर्स्थापना अर्थात् बहाली को प्रस्तुत करता है। जरूब्बाबेल दाऊद के वंशज के राजाओं को पुनर्स्थापित करता है, जिसकी पराकाष्ठा मसीह के सहस्त्रवर्षीय राज्य में जाकर होती है। जरूब्बाबेल मसीह की वंशावली में दोनों ही ओर से अर्थात् यूसुफ की ओर (मत्ती 1:12) और मरियम की ओर से (लूका 3:27) प्रगट होता है।

व्यवहारिक शिक्षा : हाग्गै की पुस्तक अधिकांश लोगों के द्वारा दिन प्रतिदिन सामना की जाने वाली सामान्य समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित करता है। हाग्गै हमसे : 1) हमारी प्राथमिकताओं की जाँच यह देखने के लिए करने को कहता है, कि कहीं हम परमेश्‍वर के कार्य को करने की अपेक्षा हमारे स्वयं के आमोद प्रमोद में रूचि तो नहीं ले रहे; 2) जब हम विषय या निराशा से भरी हुई परिस्थितियों में होते हैं तब पराजित व्यवहार को अस्वीकार करने के लिए कहता है; 3) हमारी असफलताओं को अंगीकार करने और परमेश्‍वर के सामने एक शुद्ध जीवन को व्यतीत करने के लिए कहता है; 4) परमेश्‍वर के लिए साहस से भरे हुए जीवन को यापन करने के लिए कहता है, क्योंकि हमारे पास यह आश्‍वासन है, कि परमेश्‍वर सदैव हमारे साथ है और प्रत्येक परिस्थिति उसके नियंत्रण में है; और 5) स्वयं को परमेश्‍वर के हाथों में सुरक्षित होने के लिए यह जानते हुए कहता है, कि यदि हम विश्‍वासयोग्यता के साथ उसकी सेवा करते हैं, तो वह हमें बहुतायत के साथ आशीषित करेगा।



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